हेमेन्द्र मिश्र
छात्र राजनीति के इतिहास पर निगाह डालें तो यह पता चलता है कि 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के गठन से पहले 1874 से ही छात्रों ने राष्ट्रीय स्तर पर आंदोलनात्मक गतिविधियां शुरू कर दी थी। आज एक बड़ा तबका छात्र राजनीति के पक्ष मंे नहीं दिखाई देता है। इसी मसले पर बीते दिनों जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में एक चर्चा का आयोजन किया गया।इसमें श्यामकृष्ण पांडेय की पुस्तक ‘भारतीय छात्र आंदोलनों का इतिहास’ को कंेद्र में रखकर चर्चा की गई।
अपने समय के चर्चित छात्र नेता रहे श्यामकृष्ण पांडेय ने कहा, ‘जिंदा रहने का नाम नहीं है जिंदगी, जीना है तो जीने का सबब पैदा करो।’ उन्होंने युवाओं से इस दिशा में सोचने का और एक क्रांति छेड़ने का आहवान किया। काशी हिंदू विश्वविद्यालय में छात्र संघ अध्यक्ष रहे और अभी भारतीय जनसंचार संस्थान से संबद्ध आनंद प्रधान ने कहा कि सत्तर के दशक में छात्र राजनीति में अपराधियों के आगमन के कारण ही लोगों का इसके प्रति मोहभंग हुआ। उन्होंने कहा कि योजनाबद्ध ढंग से छात्र राजनीति को खत्म किया गया। कुलपतियों ने पहले छात्रों को भ्रष्ट बनाया फिर बदनाम करके आखिरी में उन्हें सुनियोजित तरीके से कैंपस से निकाल फंेका। जेएनयू छात्रसंघ की पूर्व अध्यक्ष कविता कृष्णन के मुताबिक छात्र राजनीति की सफाई तब ही संभव है जब छात्र आंदोलन कैंपस से बाहर निकलते हुए आम सवालों की बुनियाद पर खड़ा हो। जेएनयू छात्र संघ के मौजूदा अध्यक्ष संदीप सिंह ने सवाल उठाया कि आखिर कब छात्रों की स्वतंत्र भूमिका होगी?
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