सुमन
छोटे-छोटे शहरों से, खाली बोल दुपहरों से, हम तो झोला उठा के चले.... बारिश कम-कम लगती है, नदियां मद्धम लगती हैं, हम समंदर किनारे चले....। बंटी और बबली फिल्म के लिए लिखे गए गुलजार के ये बोल काफी कुछ कह जाते हैं। इस दौर के युवाओं के सपने तो बड़े हैं लेकिन उन्हें मंच नहीं मिल पाता। सौ में शायद एक को ही सही मौका मिल पाता है। इस दौर में यह हल्ला है कि हर किसी के लिए मंच उपलब्ध है लेकिन असल में ऐसा नहीं है।
कस्बों और छोटे शहरों में रहने वाले लड़के, लड़कियों के लिए वह जगह घुटन भरी महसूस होती है, जहां से वे निकल जाना चाहते हैं। सूचना क्रांति तो शहरों को कस्बों तक नहीं पहुंचा पाई लेकिन शहरों ने जो काम किया सही मायने में वह जरूर कस्बों तक पहुंच गई है। अब गांव मंे रहने वाले लोगों के टेलीविजन पर भी वही सब आ रहा है जो मायानगरी में रहने वाले देख रहे हैं। छोटे गांवों और कस्बों मे रहने वाले बंटी और बबली को ऐसा भी लगता है कि हम कहीं फंसे हुए हैं। हमें यहां से निकलना चाहिए। उन्हें लगता है कि असली दुनिया तो कहीं और है। उनकी महत्त्वकांक्षाएं वहां पूरा नहीं हो सकतीं और उनके भटकने का भय भी बना रहता है।
यह केवल नकारात्मक ही नहीं होता बल्कि सकारात्मक भी होता है। युवा होने का मतलब है कि आप कुछ करना चाहते हैं। या यों कहें- कुछ करने लायक, मरने लायक उम्र की पहचान, एक अदम्य इच्छा और साहस की उम्र। मुझे वाक्यों के अंत में पूर्ण विराम लगाना तो पसंद नहीं, मुझे उन्हें खुला छोड़ देना पसंद है। सीमाहीन क्षितिज में विचरने के लिए।
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