हिमांशु शेखर
हिंदुस्तान की आजादी के इक्सठ साल पूरे होने को हैं। किसी भी राष्ट्र के निर्माण के लिए छह दशक का वक्त कम नहीं होता है। एक ऐसी व्यवस्था जिसकी नींव ही साम्राज्यवादी ताकतों को कुचल कर रखी गई हो, उसे तो प्रगति का पथ सहज और स्वभाविक तौर पर अख्तियार करना चाहिए। पंद्रह अगस्त 1947 के बाद जिन नए निजामों ने सत्ता की बागडोर संभाली, उन्होंने इस राह चलने की बात बार-बार कहकर जनता को भरमाए रखा।
जिन लक्ष्यों के साथ महात्मा गांधी ने आजादी की लड़ाई को एक सफल मुकाम तक पहुंचाया था वे आज भी अधूरी ही हैं। इसके लिए सबसे ज्यादा गुनाहगार तो वही पार्टी है जिसने गांधी के झंडाबरदार होने का दावा किया। सच तो यह है कि गोडसे ने तो गांधी की एक बार हत्या की थी लेकिन गांधी के नाम पर अपनी सियासत चमकाने वालों ने गांधी की हत्या बार-बार की और यह सिलसिला थमता नजर नहीं आ रहा है। गांधी के इस देश में लोकतंत्र के मंदिर कहे जाने वाली संसद में नोटांे के बंडल हवा में लहराए जाते हैं और सियासत का एक बड़ा दलाल बेशर्मी की सारी हदों को पार करते हुए अपनी तुलना गांधी से करने की हिमाकत कर बैठता है। और धन्य है आजाद भारत की मीडिया, जो उसे पूरा तवज्जह देती है। वो तो भला हो कि संसद के बाहर लगी गांधी की मूत्र्ति पत्थर की है। यह कल्पना ही सिहरन पैदा करने के लिए पर्याप्त है कि अगर उस मूत्र्ति में चेतना होती तो सरेआम लोकतंत्र की नीलामी को देखकर उसकी प्रतिक्रिया क्या होती। सोचने वाली बात यह भी है कि अंग्रेजी सरकार के असेंबली में बम फोड़ने वाले भगत सिंह आजाद भारत के संसद में लोकतंत्र को शर्मशार होते देखकर क्या करते?
बहरहाल, आजाद भारत के लोकतांत्रिक व्यवस्था के पतन को इसी बात से समझा जा सकता है कि कभी देश के प्रथम राष्ट्रपति डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद की वजह से जाना जाने वाला सीवान को आज शहाबुद्दीन की वजह से जाना जाता है। इलाहाबाद के पास के फूलपूर की शोहरत इसलिए भी रही है कि कभी यहां से जवाहर लाल नेहरू चुनाव जीतते थे। आज वहां से अतीक अहमद जैसा अपराधी सांसद बन जाता है। गांधीयुग के कांग्रेसी नेता एमएम अंसारी के घर से मुख्तार अंसारी जैसा बाहुबली नुमाइंदा निकलता है। लोकतंत्र के मुंह पर कालिख पोतने की यह कैसी आजादी है?
कहना न होगा कि आजादी को देश के एक खास तबके ने स्वार्थ साधने के औजार में बखूबी तब्दील कर दिया। ‘भारत’ इस वर्ग के लिए ‘इंडिया’ बन गया। बरास्ते समाजवाद पूंजीवाद को माई-बाप मानने वाली व्यवस्था ने आम लोगों को बाजार में बदल दिया। सियासी सौदागरों ने तो पहले ही उन्हें वोट पाने का जरिया मात्र बनाकर छोड़ दिया। यह कैसी आजादी है जिसमें ‘इंडिया’ वालों के लिए कभी ‘इंडिया शाइनिंग’ होता है तो कभी ‘फील गुड’ लेकिन ‘भारत’ के 84 करोड़ लोग बीस रुपए से भी कम पर जीवन गुजारने को अभिशप्त हैं। इनके लिए आजादी का मतलब तो बस यही है कि शासकों की चमड़ी का रंग बदल गया। आजाद भारत की यह कैसी विडंबना है कि सबसे धनी व्यक्ति की आय और औसत प्रति व्यक्ति आय में नब्बे लाख गुना का अंतर है। अब तो हमें यह सोचना ही होगा कि जिस आजादी का हम जश्न मना रहे हैं, वह कैसी और किसकी आजादी है?
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment